श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर
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By Admin
Published - 26 August 2024 85 views
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आज से ५२५० वर्ष पूर्व भाद्र मास के कृष्ण पक्ष के अष्टमी तिथि की मध्यरात्रि को भारतवर्ष के मथुरा में अवतीर्ण होकर इस धरा को पवित्र करनेवाले लीला पुरुषोत्तम योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण के स्मरण हेतु " जन्माष्टमी पर्व " हम आज भी हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण कौन हैं ?
श्रीमद् भागवत पुराण में कहा गया है - " कृष्णस्तु भगवानस्वयम्। " इसका सरल अर्थ यह हुआ कि मत्स्य , कच्छप , वाराह , नृसिंह आदि अन्य समस्त अवतार भगवान के अवतार कहे जाते हैं , परंतु श्री कृष्ण भगवान के अवतार नहीं , बल्कि स्वयं भगवान ही हैं।
सभी अवतारों में जो भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्य हुए , वे सब-के-सब एक ही अवतार --श्री कृष्णावतार में परिपूर्ण हुए , इसलिए हम भगवान श्रीकृष्ण को पूर्णावतार मानते हैं।
जल में डूबते हुए अनन्यगति पुत्र को देखकर जिस प्रकार पिता प्रेम-विह्वल होकर स्वयं पानी में कूद पड़ता है , ठीक उसी प्रकार इस संसाररूपी कारागार के लोगों को मुक्त करने के लिए भगवान श्री कृष्ण कारागार के बंधन को स्वीकार करते हैं तथा स्वयं मुक्त होकर बाकी लोगों को मुक्ति प्रदान करते हैं।
श्रीकृष्ण ने लगभग ग्यारह वर्ष की आयु में क्रूर कंस को मार कर अपनी माता श्री देवकी जी तथा पिता श्री वासुदेव जी को कारागृह से मुक्त कराया था।
राजसूय यज्ञ के प्रकरण में भगवान श्रीकृष्ण ने सभी लोगों को अनेक प्रकार के कार्य बताकर अपने लिए तो " कृष्ण: पादावनेजने " अर्थात् अभ्यागत-अतिथियों के चरण धोने का ही कार्य लिया। विष्णु सहस्त्रनाम में भगवान के तीन नाम कहे गये हैं - अमानी मानदो मान्य: अर्थात् जो स्वयं अहंकाररहित होकर दूसरों को मान देता है , वह सर्वमान्य हो जाता है। इन तीन नामों को सफल कर श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सेवा-धर्म (Ideal of Service) का उत्तम आदर्श प्रस्तुत किया।
भगवान श्री कृष्ण की " भगवत् गीता " के जोड़ की दूसरी पुस्तक आज भी संसार में नहीं बन पाई है। विश्व में आज भी कहीं भी आध्यात्मिक चर्चा होती है , वह तब तक पूर्ण नहीं मानी जाती , जब तक उसमें भगवत् गीता का उल्लेख न हो।
भगवत् गीता में भगवान ने सारी दुनिया के सभी प्रकार के लोगों के लिए , जो जिस भाव-तल पर खड़ा है , वहीं से मोक्ष तक पहुंचने का कोई-न-कोई मार्ग बता दिया है।
भगवत् गीता में भगवान ने कहा है -
" साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते। "
अर्थात् सज्जनों में तथा पापियों में भी जो समान भाव वाला है , वह विशिष्ट है।
अपने इन उपदेशों का आदर्श अपने आचरण से विश्व को दिखाते हुई शत्रुओं के साथ भी राग-द्वेषरहित और निष्पक्ष रहकर ही व्यवहार किया था।
महाभारत युद्ध के प्रारंभ में श्री कृष्ण अपने प्रिय सखा व भक्त अर्जुन से युद्ध करनेवाले उसके शत्रु दुर्योधन को भी समान भाव से सहायता करने को तैयार हुए थे। संसार में ऐसा कौन व्यक्ति होगा , जो अपने प्रेमी मित्र के शत्रु को उसी से युद्ध करने के कार्य में सहायता प्रदान करे ?
भारत का सम्राट जरासंध और उसका मित्र कालयवन अपने अतुल सैन्यबल से मथुरा का घेरा दिए पड़े थे , उस परिस्थिति में अपने सभी बंधु-बांधवों को साथ लेकर सुदूर काठियावाड़ के द्वारका स्थान में ले जाकर बसा देना और समुद्र के मध्य एक आदर्श नगर की प्रतिष्ठा कर देना - वास्तव में श्रीकृष्ण के व्यावहारिक ज्ञान की कुशलता है।
सर्व सामर्थ्यवान होते हुए भी भगवान श्री कृष्ण ने किसी भी राज्य को हड़पा नहीं था। मथुरा नरेश कंस के मारे जाने पर सभी नगर वासियों ने श्रीकृष्ण को मथुरा नरेश बनने का आग्रह किया था , जिसे श्रीकृष्ण ने आग्रहपूर्वक अस्वीकार कर दिया था। इसी प्रकार जरासंध के मारे जाने के पश्चात् जरासंध के पुत्र का ही राज्याभिषेक हुआ था। राज्य हड़पने की नीति - श्रीकृष्ण नीति नहीं थी। इसी कृष्ण नीति का हमारा देश आज भी अवलंबन करता है।
लीला पुरुषोत्तम योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण के चरणों में कोटि-कोटि नमन।
पावन श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी की शुभ कामनाएं
जय श्री कृष्ण जय श्री राधे
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